Wednesday, August 6, 2014

बच्चों के िदन भुला न देना....

आज मुझे याद आ रहा है कि किस शिद्दत से हम सब बच्चों को अपनी गर्मी की छुट्टियों का इंतज़ार रहता था। छुट्टियां होने से पहले ही हमारी मां हमारे कपड़े ठूंस ठूंस कर ट्रंक में भरने शुरू कर दिया करती थीं।

        मीरपुर का रघुनाथ मंदिर 
हम लोग मीरपुर में रहते थे (जो कि अब पीओएक -Pak Occupied Kashmir) में है। और छुट्टियों में ननिहाल जाना हमारा तय होता था। हम लोग पहले पैदल चल कर अड्डे पर जाया करते, वहां से लारी में बैठ कर पत्तन पहुंच जाते थे।

पतन में हम लोग एक बहुत बड़ी बेड़ी में बैठ कर झेहलम नदी के एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुंच जाया करते थे। झेहलम दरिया पार करने पर हम लोग एक टांगे में बैठ कर झेहमल रेलवे स्टेशन पहुंच जाते......फिर वहां से रेल टिकट खरीद कर गाड़ी में बैठ कर जिला गुजरात पहुंचते। फिर स्टेशन से टांगा कर के हम लोग अपनी नानी की गोद में पेरोशाह गांव पहुंच जाते थे।

हमारी नानी, हमारी मासी और मामे हमें देख कर खुश हो जाया करते थे। उन्हें पता भी नहीं होता था कि हम ने आना है। मैं १९३०-४०के दशक की बातें आप को सुना रही हूं....तब यह मिनट मिनट और शायद पल पल की खबर देने वाले मोबाइलों का झंझट कहां था, इसलिए ज़िंदगी ज़्यादा सहज और आनंदमयी थी।

हां, तो नानी अपनी बड़ी ग्रेट थीं......मुझे अच्छे से याद है कि हमारी नानी से कोई चीज़ मांगने आता था और अगर वह चीज़ उस के पास नहीं हुआ करती थी तो वह उस मांगने आई औरत को घर में बिठा कर खुद वह चीज मांगने निकल जाया करती थीं और वह चीज़ का कहीं से भी जुगाड़ कर ही लौटा करती थीं।

हमारी नानी को पता तो रहता ही था कि अब गर्मी की छुट्टियां होने वाली हैं, इसलिए वह हमारे वहां पहुंचने से पहले ही चने, कुरमुरा आदि भुना कर, धानां (गेहूं की नई फसल आने पर उस के दानों को भून कर जब रखा जाता था).. गुड़ आदि बड़े बड़े मिट्टी के बर्तनों में डाल कर रख छोड़ती थीं और हम लोग खेलते-कूदते आते जाते उस में हाथ डाल कर उसे खाते थकते न थे।

और हमारी नानी के घर के बाहर पेड़ों पर हमें पींघे डाल दी जाती थीं जहां पर झूले लेते रहना हमें बेहद आनंद दिया करता था।

अरे, मेरी प्यारी नानी, मैं तुम्हारी वह प्यारी बात कैसे भूल गईं जब तुम हम सब के पास पांच-सात सूईंयां और धागे लेकर आ जाती और उन में धागा डालने को कहतीं.....लंबे लंबे धागे डाले जाने पर वह घर कि कच्ची दीवारों पर उन सूईंयों को टांग दिया करती थीं और अपनी ज़रूरत के अनुसार उन्हें इस्तेमाल कर लिया करती थीं। हमें शायद उस समय यह देख कर हंसी तो क्या, थोड़ा अजीब लगता था लेकिन जब अपनी आंखों ने जवाब देना शुरू किया --और अपने नाती-पोतों से यही काम करवाना शुरू किया तो नानी के सूईं-धागों का राज़ समझ में आ गया।

हां, वहां अपनी एक बाल विधवा मौसी भी तो थीं जो हमें खूब खाया पिलाया करती थीं और आते वक्त उस ने हमारे लिए घऱ ही में खताईयां (एक तरह के बिस्कुट- मैदा, सूजी, चीनी आदि मिला कर तैयार) तैयार कर के ...एक टीन को घर ही में एक भट्ठी पर रख कर उस पर खताईयां तैयार कर देती थीं।

हां, हम लोग वहां खूब मजा तो करते थे ....पूरे दो महीने......छुट्टियां शुरू होते ही जाना और खत्म होने पर लौट कर आना......लेकिन हम लोग अपने साथ अपना होमवर्क भी ज़रूर ले कर जाया करते थे। वहां हम रोज अपना होमवर्क भी किया करते थे ......जो कि खत्म होने का नाम ही नहीं लिया करता था.... लेकिन फिर भी हमें अपने टीचरों के डर से उसे तो पूरा करना ही पड़ता था क्योंकि वापिस लौटने पर हमारे होमवर्क की कापियां ज़रूर चैक हुआ करती थीं।

बस अभी आज के लिए इतना ही.......फिर कभी यादों के झरोखों से कुछ दिखेगा तो आप से शेयर करूंगी।